बीते लम्हों की कशिश बस अब याद आती है.
ज़हन में तेरी तस्वीर यूँ ही बन जाती है..
पर क्या करूँ अब इनसे दिल बहलता ही नहीं...
आ जाओ कि तुझे ये कायनात बुलाती है....
रहनुमा अब कौन है, ये समझ आता नहीं.
मुस्तक़बिल अब क्या होगा कोई बतलाता नहीं..
शंमा की ये लौ भी अब चेहरा तेरा दिखाती है...
आ जाओ कि तुझे ये कायनात बुलाती है....
वस्ल का वो दिन सनम, नाजाने फिर कब आएगा.
हिज्र कि इस शब् में अब ये चाँद भी तड़पायेगा..
ये फ़िज़ायें, ये हवाएं, तेरी आवाज़ मुझे सुनाती हैं...
आ जाओ कि तुझे ये कायनात बुलाती है....
--------NIRAJ SHRIVASTAVA
bahut achchhe Niraj...Keep it up...
ReplyDeleteधन्यवाद सर!! आपकी हौसला अफजाई ने मेरी कलम को और ज्यादा शक्ति प्रदान किया है।
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