Saturday 5 October 2013

मुहब्बत का यही बस दस्तूर होता है

मुहब्बत का यही बस दस्तूर होता है,
अक्सर पहली नज़र का ही क़सूर होता है।

नज़रों से जब अहसास बात करते हैं, दोस्तों!
तब अनकही अल्फाज़ों का एक अलग ही सुरूर होता है।

मदहोशी  का समां हर वक़्त रहता रहता है ऐसे,
जैसे बिन पिए ही शक्स नशे में  चूर होता है।

सवाल-ए -वस्ल पर उनके चेहरे के ये शिकन,
कहते हैं,  ज़माने को मुहब्बत नहीं मंज़ूर होता है।

हर हाल में जो मुहब्बत की बाज़ी जीत लेते हैं,
किस्सा उनके प्यार का दोस्तों! बहुत मशहूर होता है।

----© NIRAJ SHRIVASTAVA